To So_Han-Han_So


4 . सतपाल और उनका सोऽहँ - ( सोऽहँ और सोऽहँ वाले)

 

सोऽहँ की साधना करने वालों को बतला दूँ कि सोऽहँ-परमात्मा तो है ही नहीं, विशुध्दत: आत्मा भी नहीं है । यहाँ तक कि यह कोई योग की क्रिया भी नहीं है, बल्कि सोऽहँ तो श्वाँस और नि:श्वाँस के मध्य सहज भाव से होते -रहने वाला आत्मा का जीवमय पतनोन्मुखी स्थिति है, जो बिना कुछ किए ही होते रहता है। यह आत्मा (ज्योतिर्मय स:) का जीव (सूक्ष्म शरीर अहम् मय) बिना किए ही अनजान जीवित प्राणियों में जीवनपर्यन्त सहज ही होते रहने वाली स्थिति मात्र ही है--योग की क्रिया भी नहीं है क्योंकि क्रिया तो वह है जो करने से हो । जो बिना किए ही सहज ही होती रहती हो, उसे क्रिया कैसे कहा जा सकता है ? और सोऽहँ का श्वाँस-नि:श्वाँस के मध्य होते रहने वाली आत्मा की जीवमय तत्पश्चात् इन्द्रियाँ (शरीरमय) होता हुआ परिवार संसारमय होते हुए पतनोन्मुखी यानी विनाश को जाते रहने वाली एक सहज स्थिति है । योग भी नहीं है तो उसे ही तत्त्वज्ञान कह देना-मान लेना तो अज्ञानता के अन्तर्गत घोर मिथ्याज्ञानाभिमान ही हो सकता है, 'तत्त्वज्ञान' की बात ही कहाँ ?
 

जब सब ही भगवान के अवतार हैं तो सद्गुरु कैसा ?

सोऽहँ वाले बन्धुजनों से एक बात पूछनी है कि क्या ऐसा कोई भी जीवित शरीर है, जो सोऽहँ की न हो ? और जब सोऽहँ ही खुदा-गॉड-भगवान् है, तब तो सब के सब मनुष्य ही भगवान् के अवतार हैं, फिर तथाकथित गुरु जी-सद्गुरुजी ही क्यों ? भगवान् भी अज्ञानी जिज्ञासुओं वाला और 'ज्ञानी' गुरुजी-तथाकथित सद्गुरुजी वाला दो प्रकार का होता है क्या ? एक भगवान् अज्ञानी और दूसरा भगवान् ज्ञानी ? यह कितनी मूढ़ता और मिथ्याहंकारिता है घोर ! घोर !! घोर !!! घोर मूढ़ता है ।
 

जब पूर्व में एक ही एक तो अब सब ही ?

पूरे सत्ययुग में एकमात्र श्रीविष्णु जी ही, पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र केवल एक ही भगवान के अवतार थे, ठीक वैसे ही त्रेतायुग में पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र एक ही श्रीराम जी और पूरे द्वापर युग में पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र एक श्रीकृष्ण जी ही केवल भगवान के अवतार थे और आजकल-वर्तमान में सब ही मनुष्य ही सोऽहँ वाली शरीर होने के कारण भगवान् के अवतार हो गये ? कितनी हास्यास्पद बात है !
 

सत्ययुग-त्रेता-द्वापरयुग में ऋर्षि-महर्षि, ब्रम्हर्षि आदि और नारद-व्यास- शंकर जी आदि देववर्ग भी जो पतनोन्मुखी सोऽहँ नहीं, बल्कि ऊर्ध्वमुखी हँऽसो वाले भी थे, वे जब भगवान् के अवतार मान्य व घोषित नहीं हुए। तो आज-कल पतनोन्मुखी सोऽहँ वाले भगवान् के अवतार हो जायेंगे ? यदि कोई भी गुरु जी एवं तथाकथित सद्गुरु जी गण सोऽहँ मात्र के आधार पर ही भगवान् के अवतार मान व घोषित कर रहे हों, तो थोड़ा भी तो सोचो कि क्या यह घोर मिथ्या और हास्यास्पद नहीं है ? बिल्कुल ही मिथ्या और हास्यास्पद ही है । सोऽहँ वाले चेला जी भी भगवान् और सोऽहँ वाले गुरु जी भी भगवान् जी ! अरे मूढ़ थोड़ा चेत ! थोड़ी भी तो चेत कि यह कितनी बड़ी मूर्खता है !!
 

जीव और आत्मा (ईश्वर) का अवतार नहीं होता !

यहाँ पर मुख्य बात तो यह है कि अवतार -- जीव (रूह-सेल्फ) और आत्मा (ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-डिवाइन लाइट-दिव्य ज्योति-ज्योतिर्विन्दु रूप शिव) का नहीं होता है। संसार में सारे गृहस्थ शरीर स्तर के; सारे के सारे स्वाध्यायी जीव (रूह-सेल्फ) स्तर के; सारे के सारे योगी-साधक-आध्यात्मिक- अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मागण आत्मा (ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-डिवाइन लाइट-दिव्य-ज्योति-ज्योति विन्दु रूप शिव) स्तर के; और तत्त्वज्ञानी-तात्त्विक‌- तत्त्ववेत्ता परमतत्त्वम् स्तर के होते हैं । इन चारों स्तरों में क्रमश: पहले तीन स्तर वालों का अवतार नहीं होता है । एकमात्र केवल एक चौथे स्तर (परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप गॉड रूप खुदा-गॉड- भगवान् का ही अवतार होता है । यह अवतार ही सद्गुरु भी होता है । यह ही सत्य है।
 

सोऽहँ वाले साधक भी नहीं, तो ज्ञानी कैसे ?

संसार में तत्त्वज्ञान एवं योग-अध्यात्म रहित जितने भी गैर साधक के शरीर हैं और जीवित हैं वे सबके सब सोऽहँ की ही शरीर तो हैं । सोऽहँ व शरीर वाले गैर साधक होते हैं --साधक भी नहीं । तो जो साधक नहीं है वह तो योगी-आध्यात्मिक ही नहीं, तत्त्वज्ञानी होने की बात ही कहाँ ? अत: सोऽहँ आत्मा का जीवमय पतनोन्मुखी श्वाँस-नि:श्वाँस के बीच होते रहने वाली योग (अध्यात्म) विहीन गैर साधक की यथार्थत: सहज स्थिति है। सोऽहँ आत्मा भी नहीं है तो परमात्मा होने की बात ही कहाँ ? अवतार तो एकमात्र एकमेव ''एक'' परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप शब्द (बचन) रूप गॉड रूप खुदा-गॉड-भगवान् का ही होता है, अन्य किसी का भी नहीं । सोऽहँ वालों ! थोड़ा भी तो अपने जीवन के मोल को समझो अन्यथा सोऽहँमय बना रहकर पतन होता हुआ विनाश को प्राप्त हो जायेंगे।
 

आप मनमाना जबर्दस्ती जिद्द-हठ वश सोऽहँ को ही भगवान् और सोऽहँ वाले झूठे और पतन और विनाश को ले जाने वाले गुरु को ही अवतार मान लोगे तो इससे आप अपने को ही धोखा दोगे । आप ही परमतत्त्वम् रूप परमसत्य से बंचित होंगे। हम लोग तो परम हितेच्छु भाव में आप सबको बतला दे रहे हैं-- समझना-अपनाना-जीवन को सार्थक-सफल तो आप को बनाना-न-बनाना है । आप चेतें-सम्भलें और सत्य अपना लें । यह सुझाव नि:सन्देह आप के परम कल्याण हेतु है कहता हूँ मान लें, सत्यता को जान लें। मुक्ति-अमरता देने वाले परमप्रभु को पहचान लें ॥
 

सोऽहँ तो मात्र अहंकार बढ़ाने वाला

आप सोऽहँ वाले बन्धुओं से एक बात पूछूँ कि क्या सोऽहँ-अहंकार को बढ़ाने और पतन और विनाशको ले जाने वाली सहज स्थिति मात्र ही नहीं है ? और है तो अपने लिये ऐसा क्यों करते हैं ? आप स्वयं देखें कि स: रूप आत्म शक्ति जब अहं रूप जीव को मिलेगी तो बढेग़ा 'अहंकार' ही तो। यह प्रश्न आप सब अपने आप से क्यों नहीं करते? आप में यदि अहंकार और मिथ्याभिमान नहीं बढ़ा है तो आप सभी के सोऽहँ और तथाकथित सोऽहँ क्रिया को बार-बार ही अहंकार को बढ़ाने और पतन-विनाश को ले जाने वाला चुनौती के साथ समर्पण-शरणागत करने-होने के शर्त पर कहा जा रहा है तो मेरे इस कथन-चुनौती भरे कथन को गलत प्रमाणित करने को तैयार होते हुए मेरे समक्ष उपस्थित होकर जाँच-परख ही क्यों नहीं कर-करवा लेते। सच्चाई का -- वास्तविकता का सही-सही पता चल जाता कि सोऽहँ क्या है ? सोऽहँ जीव है कि आत्मा है कि परमात्मा है ?
 

सोऽहँ जीव एंव आत्मा और परमात्मा तीनों में से कौन ?

सोऽहँ वाले गुरुओं को तो यह भी पता नहीं है कि सोऽहँ का 'सो' कहाँ से आकर श्वाँस के माध्यम से प्रवेश करता है और 'हँ' नि:श्वाँस के माध्यम से कहाँ को जाता है। यह भी बिल्कुल ही सच है कि उन्हें यह भी मालूम नहीं है कि सोऽहँ दो का संयुक्त नाम है या एक ही का या तीन का नाम है? यदि वे दो कहते हैं तो फिर सोऽहँ माने आत्मा कैसा जबकि आत्मा तो एक ही है । यदि एक ही आत्मा का नाम मानते हैं, तो जीव और परमात्मा का नाम क्या है ? सोऽहँ ही परमात्मा है तो जीव और आत्मा का नाम क्या है? धारती का कोई भी आध्यात्मिक गुरु यह रहस्य नहीं जानता कि इसकी वास्तविकता क्या है ?
 

अन्तत: आप की चाहत क्या है

अन्तत: अब निर्णय आप पर है कि आप सोऽहँ साधना से अपने अहंकार को बलवान बनाते हुए पतन को जाते हुए विनाश को जाना चाहते है, अथवा मुझ (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) से तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान प्राप्त करके भगवद् भक्ति-सेवा में रहते-चलते हुये पूर्ति-कीर्ति-मुक्ति तीनों को अथवा सर्वोच्चता-यश-कीर्ति और पूर्ति सहित मोक्ष पाना चाहते हैं
 

आध्यात्मिक गुरु-सद्गुरु को तो सोऽहँ का भी सही-सही पता ही नहीं !

सन्त ज्ञानेश्वर का यह चुनौती भरा कथन है कि पूरे भू-मण्डल पर ही एक भी कोई आध्यात्मिक गुरु तथाकथित सद्गुरुजी यह स्पष्टत: नहीं जानते कि सोऽहँ वास्तव में क्या है ? कहाँ से और कैसे उत्पन्न और संचालित-नियन्त्रित होता रहता है ? अथवा सोऽहँ वास्तव में 'जीव' है कि आत्मा-ईश्वर है कि परमात्मा-परमेश्वर है या इससे भी कुछ भिन्न है? जब हमे साधना ही करना है तो पतन-विनाश वाला ही क्यों करें उत्थान-कल्याण वाला क्यों नहीं करें ?
 

जाँच करने-करवाने हेतु कोई तो चुनौती स्वीकारें

इस उपर्युक्त चुनौती भरे कथन को गलत प्रमाणित करने वाले के प्रति सन्त ज्ञानेश्वर अपने सकल भक्त-सेवक-शिष्य समाज व समस्त आश्रमों सहित गलत प्रमाणितकर्ता के प्रति समर्पित-शरणागत हो जायेंगे मगर सद्ग्रन्थीय व प्रायौगिक आधार पर भी गलत प्रमाणित के प्रयासकर्ता को भी गलत प्रमाणित कर सकने पर भगवद् सेवार्थ रूप धर्म-धर्मात्मा-धरती रक्षार्थ समर्पित-शरणागत-अपना सर्वस्व ही समर्पित-शरणागत करना-होना-रहना ही पडेग़ा । जब भक्ति-सेवा पूजा-आराधना करना ही है तो पतन-विनाश और आध-अधूरे का क्यों करें ? पूरा-पूरा वाले का क्यों नहीं ? सब भगवत् कृपा
 

तब योग-साधना की आवश्यकता ही क्यों ?

आप समस्त सोऽहँ-साधना वाले किसी भी गुरुजन अथवा उनके शिष्यजन से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस को एक बात पूछनी है जो आप लोगों पर ही है। क्या इसका उत्तार देने का कष्ट करेंगे ?
 

ऐसा भी अज्ञानी और साधनाहीन की भी कोई जीवित शरीर है जो सोऽहँ की न हो ? जो भी जीवित शरीर है, वह सोऽहँ की ही तो है । फिर साधाना की आवश्यकता क्यों ? सोऽहँ मात्र ही जब भगवान् है और सभी जीवित प्राणी सोऽहँ वाला ही है, तब तो सभी ही भगवान् हुये ! क्या भगवान् जब जो स्वयं सोऽहँ ही है, को भी सोऽहँ की साधना की जरूरत है ? गुरुजी भी सोऽहँ की शरीर और चेला जी भी सोऽहँ की शरीर ! यानी गुरु जी सोऽहँ और चेला जी भी सोऽहँ! यानी चेला भगवान् जी गुरु भगवान् जी की पूजा-पाठ करें ! यानी चेला भगवान् जी अपना धन-सम्पदा अपने पत्नि-लड़का-लड़की भगवान् जी लोगों से ले करके गुरु भगवान् जी को सौंप दे! ऐसी भक्ति, ऐसी सेवा, ऐसी पूजा-आराधना और ऐसे भगवानजन नाजानकारों नासमझदारों के नहीं तो भगवद् भक्तजन के हो सकते हैं क्या ? इस पर नाराजगी हो रही हो तब तो यही कहना होगा कि मतिभ्रष्टों के नहीं तो क्या सही भगवद्जन के हो सकते हैं ? थोड़ा गौर तो करें और सच्चाई समझने की कोशिश तो करें। क्या ऐसे ही भगवान जी उध्दव के नहीं थे ? जिसे गोपियों के माध्यम से त्याग करके अफसोस-प्रायश्चित के साथ समर्पण-शरणागत कर-हो करके श्री कृष्ण जी से 'ज्ञान' प्राप्त करना पड़ा ? क्या उध्दव की तरह से आप लोगों को भी सोचना-समझना और सम्भलना नहीं चाहिये ? नाजानकारी और नासमझदारी से उबर करके अध्यात्म से भी ऊपर वाले इस सम्पूर्ण वाले 'तत्त्वज्ञान' के माध्यम से भगवत् प्राप्त होकर भगवद् शरणागत हो-रहकर अपने जीवन को सार्थक-सफल नहीं बना लेना चाहिये ? अवश्य ही बना लेना चाहिये !
 

अन्तत: उपसंहार रूप में एक बात बताऊँ कि जो नहीं करता है, वह तो नहीं ही करता है मगर जो पूजा-आराधना-भक्ति-सेवा करना चाहता है, करता भी है, वह आध-अधूरे-झूठे का क्यों ? जब करना ही है तो पूर्ण-सम्पूर्ण-परमसत्य का ही क्यों नहीं ? 'अहँ ब्रम्हास्मि' वाला 'जीव' वाला और सोऽहँ-हँऽसो-शिव ज्योति आत्मा वाला मात्र ही क्यों ? परमात्मा-परमेश्वर-तत्तवज्ञान वाला क्यों नहीं?
 

सम्पूर्ण और परमसत्य लक्षण वाला परमेश्वर मानने का विषय-वस्तु नहीं होता है अपितु बात-चीत सहित साक्षात् देखते हुये जानने-देखने का विषय होता है । आप मुझसे स्पष्टत: बात-चीत सहित जान-देख-परख-पहचान कर सकते है ।
 

क्या प्राचीन गुरुओं ने शिष्यों को भगवत् प्राप्ति और मोक्ष से बंचित नहीं करा दिये थे ?

फिर आप अपने को सोचिए
 

एक बात सोचिये तो सही ! सत्ययुग-त्रेता-द्वापर में भी हजारों-हजारों गुरुओं ने अपने शिष्यों के बीच अपने को भगवान् की मान्यता देते-दिलाते हुये अपने में ही भरमाये-भटकाये-लटकाये रखते हुये परमब्रम्ह-परमेश्वर-खुदा- गॉड-भगवान् के पूर्णावतार श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी महाराज के भगवत्ताा के वास्तविक प्राप्ति से क्या बंचित नहीं कर-करा दिये ? क्या उन शिष्यों का भक्ति-सेवा के अन्तर्गत कहीं कोई अस्तित्तव-महत्तव है ? कुछ नहीं ! नामों-निशान तक नहीं! क्या उन सभी लोगों (तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों) का सर्वनाश नहीं हो गया? क्या वर्तमान में ऐसी ही बात आप सबको अपने पर नहीं सोचना चाहिये? अपने-अपने गुरुजी को ही भगवान् ही मान करके भटके-लटके रहेंगे और वर्तमान में अवतरित भगवत् सत्ताा का लाभ प्राप्त नहीं कर सकेंगे तो क्या आप भी उन्हीं तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों की तरह ही विनाश-सर्वनाश को प्राप्त नहीं हो जायेंगे ? चेतें-सम्भलें नहीं तो अवश्य ही हो जायेंगे
 

वास्तव में यदि इन उपर्युक्त सभी प्रश्नों का ईमान-सच्चाई से सही समाधान आप सभी चाहते हैं तो मुझ (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) से कम से कम एक बार अपनत्व भरा शान्ति और प्रेम के माहौल में बिना भय-संकोच के सौहाद्र भाव से मिल-बैठ कर सच्चाई का जांच-परख ही क्यों न कर लिया जाय कि मैं निन्दक-आलोचक हूं अथवा ईमान-सच्चाई से परमसत्य का उद्धोषक और उसका ज्ञानदाता भी। आप सबके पास अपने गुरुजन तथा तथाकथित सद्गुरुजन से जो कुछ भी ध्यान अथवा तथाकथित तत्त्वज्ञान मिला हुआ है, वह तो आपके पास है ही और जो कुछ भी आपको जानकारियां-अनुभूतियां - दर्शन आदि-आदि हैं, वे सब तो आपके पास हैं ही । एकबार मुझसे मिलकर अपनी उपलब्धियों-प्राप्तियों का और मेरे तत्त्वज्ञान को जानकर क्यों नहीं तुलनात्मक जांच-परख कर-करा लिया जाय ? तब मैं आप सभी को जो जैसा निन्दक-आलोचक अथवा परमसत्य उद्धोषक- पूज्यनीय जैसा भी लगूं, वैसा ही आप सभी कहें । तब ही आप सभी का कथन सही और उचित होगा । बिना जाने-परखे मुझे निन्दक-आलोचक कहना आप अपने से ही तो पूछिये कि क्या यह उचित और सही है ? नि:सन्देह उत्तार मिलेगा 'नहीं' । जांचना-परखना कुछ कहने के लिये अनिवार्य होता है ।
 

चेते-सम्भलें, अनमोल अपने
मानव जीवन को व्यर्थ न गवाएँ !
 

अन्त में एक वाक्य कहूँगा कि परमेश्वर के असीम कृपा से मानव जीवन रूप अनमोल रतन मिला है । इसे व्यर्थ ही न गवाँ दें । ईमान और सच्चाई से पूर्वोक्त बातों को ध्यान में रखते हुये चेतें-सम्भलें और अपने अनमोल रतन रूप जीवन को सफल-सार्थक बनावें । भगवत् कृपा से मेरी भी ऐसी ही आप के प्रति शुभ कामनायें हैं । न चेते, न सम्भलें तो इसमें भगवान क्या करें । अत: चेतें और सम्भले । जीवन जो वास्तव में अनमोल रत्न है, को सार्थक-सफल बनाएँ । सब भगवत् कृपा से । भक्ति-सेवा-पूजा गुरु मात्र की नहीं अपितु एकमेव खुदा-गॉड-भगवान् का ही करना चाहिए यह सही तत्तवज्ञानदाता सद्गुरु ही भगवान् होता है मगर इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि गुरु ही भगवान् होता है । यह सही है कि भगवान् ही सद्गुरु होता है । क्या एक साथ ही हजारो-हजारों गुरु नहीं है ? भगवान् ही होता है ?
 

किसी का भी नामो-निशान तक भी नहीं है

आप यह कह सकते हैं कि मैं अपने गुरुजी से सन्तुष्ट हूँ; मेरे गुरुजी ही भगवान् के अवतार हैं; अब मुझे कहीं किसी दूसरे की कोई जरूरत नहीं; मुझे जो मन्त्र-तन्त्र-नाम-जप-ध्यान-ज्ञान, जो कुछ भी मिला है, उससे मैं काफी सन्तुष्ट हूँ; मेरे गुरु जी मात्र ही सही हैं और सब लोग गलत हैं । तो क्या यह वाक्य सही नहीं है कि ''गुरु करें दस-पाँचा । जब तक मिले न साँचा॥'' क्या ऐसी ही मान्यता सत्ययुग-त्रेता-द्वापर के भगवान् श्रीविष्णु जी, भगवान् श्रीराम जी और भगवान् श्री कृष्ण जी के अवतार बेला में उस समय के गुरुजनों के शिष्यों में नहीं था ? ऐसे ही था ! तभी तो वे लोग अपने तथाकथित गुरुजनों में भटके-लटके रहकर अपने अस्तित्तव और महत्तव दोनों का ही सर्वनाश करा लिये । भगवद् भक्त-सेवकों में नामों-निशान तक नहीं आ सका । किसी भी गुरुजन के किसी भी शिष्य का भगवद् भक्ति-सेवा के अन्तर्गत किसी भी प्रकार का कोई भी अस्तित्तव-महत्तव है ? कोई नामों-निशान है ? कोई नहीं ! देख लीजिये बशिष्ठ के शिष्यों का--याज्ञवल्वय के शिष्यों का--बाल्मीकि के शिष्यों का--व्यास के शिष्यों का, किसी का कोई अस्तित्तव है ? अठ्ठासी हजार शिष्यों के विश्वायतन चलाने वाले शौनक के शिष्यों में से कितने का नामों-निशान है ? कोई नहीं ! अरे भईया ! दस हजार शिष्यजन तो दुर्वासा जी के पीछे-पीछे घूमते रहे । उन शिष्यजनों में से कितने का अस्तित्तव महत्तव-नाम किसी को मालूम है ? अर्थात् किसी का भी नहीं ! थोड़ा इधर भी देख लीजिये । श्रीविष्णु जी से 'तत्तवज्ञान' पाने वाला मनुष्य भी नहीं, गरुण पक्षी; श्रीराम जी की भक्ति-सेवा करने वाला कौआ काक-भुषुण्डि हो गया । गिध्द जटायु, गिध्द सम्पाती, भालू जामवन्त और बानर हनुमान, राक्षस परिवार का विभीषण, अरे भईया पुल बाँधाने में सहायता करने वाली छोटी सी गिलहरी की सेवायें भी नहीं छिप सकीं।
 

इतना ही नहीं, अपने नानी के नानी का नाम अधिकतर लोगों को प्राय: किसी को भी पता नहीं रहता जबकि ''अधम से अधम, अधम अति नारी शेबरी'' का नाम हर श्रीराम जी को जानने वाले के जानकारी में है । क्या हुआ उन गुरुजनों के भक्ति-सेवा का ? कहीं कोई भक्ति-सेवा में उनका नामों-निशान है ? कहीं कुछ नहीं ! जबकि पूर्णावतार के भक्त-सेवकजनों का अमरकथा आप पढ़-सुन-जान रहे हैं । क्या यह सब सही ही नहीं है ? फिर वर्तमान के भगवान् के पूर्णावतार को छोड़कर पूर्वोक्त शिष्यजनों के तरह से ही अपने गुरुओं को ही भगवान् मान-मानकर भटके-लटके रहेंगे तो आप सबकी भी गति-दुगर्ति भी क्या वही नहीं होगी ? अरे भईया ! भगवान् वाला ही बनिये ! इसी में परम कल्याण है। यदि मोक्ष नहीं और भगवत् प्राप्ति नहीं, तो गुरु जी और दे ही क्या सकते हैं ? अर्थात् कुछ नहीं ! फिर तो मोक्ष और भगवत् प्राप्ति के लिये आगे बढ़ें । सच्चाई को देखते हुए वगैर किसी सोच-फिकर के सबसे पहले आप जिज्ञासु भक्तजन मुझसे तत्तवज्ञान के माध्यम से भगवद् भक्ति-सेवा करते हुए जीव-आत्मा और परमात्मा तीनों को ही पृथक्-पृथक् प्राप्त करते हुए मुक्ति अमरता रूप मोक्ष का साक्षात् बोध प्राप्त करते हुए गीता वाला ही विराटपुरुष का साक्षात् दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ होवें सब भगवत् कृपा ।
 

कहता हूँ मान लें, सत्यता को जान लें ।
मुक्ति-अमरता देने वाले परमप्रभु को पहचान लें ॥
जिद्द-हठ से मुक्ति नहीं, मुक्ति मिलती 'ज्ञान' से ।
मिथ्या गुरु छोड़ो भइया, सम्बन्ध जोड़ो भगवान से ॥
 

तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस
 

'पुरुषोत्ताम धाम आश्रम',
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